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जोगेंद्र नाथ मंडल : दलितों के वो पैरोकार जिन्हें पाकिस्तान के सियासतदानों ने ‘अछूत’ ही माना

भारत विभाजन अपने आप में असंख्य किस्से-कहानियां समेटे हुए है. बंटवारें के लिए जिन्ना की ज़िद हो या सत्ता के लिए नेहरू की जद्दोजहद, सबकी अपनी-अपनी कहानियां हैं और इन कहानियों में कुछ ऐसी भी हैं कि 70 साल बाद भी नए-नए किस्से-किरदार निकल आते हैं. कुछ किस्से ऐसे हैं कि उन्हें जितना खोदा जाए उतना कम है. कुछ किस्से अभी तक अनुछुए भी हैं और कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें चर्चा और व्याख्यानों में उतनी तवज्जो नहीं गयी है.

‘द आर्टिकल’ इन्हीं अनछुए किस्सों को समय-समय पर अपने रीडर्स को परोसता आया है. आज मौका है एक ऐसी शख्सियत से रूबरू करवाने का जिन्होंने कांग्रेस द्वारा नज़र अंदाज़ कर दिए गए अंबेडकर को दुनिया के समक्ष खड़ा किया था. शुरू में, संविधान सभा में भेजे गए प्रारंभिक 296 सदस्यों में अंबेडकर को जगह तक नहीं मिली थी लेकिन इस व्यक्ति ने जैसे ही अंबेडकर के कंधे पर हाथ रखा, इतिहास ने हाशिये के तरफ धकेल दिए गए अंबेडकर को भारत के संविधान निर्माता के तौर पर पहचाने जाने की कहानी लिखना शुरू कर दिया.

इस व्यक्ति के गांधी, नेहरू और कांग्रेस की नीतियों से इतने गहरे विरोधी इत्तेफ़ाक़ थे कि हिन्दू होने के बावजूद उसने भारत की जगह पाकिस्तान को चुना. लेकिन कुछ ही वर्षो में पाकिस्तान ने उसके पीठ में जो विश्वासघात का खंजर घोपा, उसे उसी नेहरू और गाँधी के भारत में शरण लेनी पड़ी.

मैं बात कर रहा हूँ, अविभाजित भारत में अंबेडकर से बड़े एक बड़े दलित नेता, दलित-मुस्लिम राजनीति के जादूगर, जिन्ना के बेहद विश्वासपात्र और पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री – जोगेंद्र नाथ मंडल की

मंडल और मुस्लिम लीग



जोगेंद्र नाथ मंडल एक पिछड़ी जाति से ताल्लुक रखते थे. उन्होंने अपनी राजनीति को भी पिछड़ी जातियों के इर्द-गिर्द रखा था. पिछड़ी जातियों में, खासकर बंगाल में उनका रसूख खूब था. वे सुभाष चंद्र बोस से काफी प्रभावित थे. साथ ही अपने समाज के लिए कुछ करने की लालसा ने उनको कांग्रेस का करीबी बनाया. लेकिन समयोपरांत उनको इस बात का एहसास हो गया कि कांग्रेस के पास उनके समाज के उद्धार के लिए कोई एजेंडा नहीं है, नाही ऐसी कोई मंशा है.

इस बात से नाराज़ होकर वे उस समय की दूसरी सबसे बड़ी चर्चित राष्ट्रिय पार्टी – मुस्लिम लीग के साथ जुड़ गये. मुसलमानो के वर्चस्व वाली मुस्लिम लीग में जोगेंद्र नाथ मंडल जैसे एक दलित नेता के जुड़ने से मानो जिन्ना और दूसरे मुस्लिम लीग के नेताओं को लगने लगा कि उनकी स्वीकार्यता अब दलित और अन्य पिछड़ी जातियों में भी बन सकती है. जिन्ना को इस बात का बखूबी अंदाज़ा था कि मुस्लिम लीग में मंडल की मौजूदगी ‘पाकिस्तान मूवमेंट’ को कैसे फायदा पहुंचा सकती है. इसी वजह से मंडल कुछ ही समय में जिन्ना के बेहद खास हो गए और पार्टी में उनका कद शीर्ष के नेताओं में शुमार हो गया. मंडल भी खुलकर जिन्ना के सिद्धांतों की प्रशंसा करने लगे.

जिन्ना और मंडल की दोस्ती का आलम कुछ यूँ हुआ कि ऐतिहासिक पटल पर पहली बार ‘दलित-मुस्लिम’ की राजनीति ने दस्तक दी जो आजतक चली आ रही है.

जोगेंद्र नाथ मंडल और अंबेडकर



मैं और मेरे जैसे वे लोग जिन्होंने जोगेंद्र नाथ मंडल और अंबेडकर को थोड़ा बहुत भी पढ़ा है वे इस बात को साफ तौर पर समझते हैं कि मंडल ना होते तो वर्तमान में अंबेडकर का नाम इतना ट्रेंड ना कर रहा होता.

उम्र में भले ही अंबेडकर मंडल से वरिष्ठ थे लेकिन राजनितिक समझ के मायनो में मंडल के सामने कनिष्ठ थे. इस बात का अंदाज़ा इस वाकये से लगाया जा सकता है कि जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने संविधान सभा से अंबेडकर को दूर रखने के लिए हर तरह के दांव-पेंच लगाने शुरू कर दिए थे तब जोगेंद्र नाथ मंडल ने ही बंगाल असेंबली के जरिये अंबेडकर को चुनकर संविधान सभा में भेजा था.

कांग्रेस ने हरसंभव यह प्रयास किया था कि अंबेडकर को उस उच्च सदन की सदस्यता न मिल सके, जो भारत का संविधान बनाने वाला था. सरदार पटेल ने तो यहाँ तक भी कह दिया था कि “संविधान सभा के दरवाजे ही नहीं उसकी खिड़कियां भी डॉ अंबेडकर के लिए बंद हैं. हम देखते हैं कि वे संविधान सभा में कैसे प्रविष्ट होते हैं.”

संविधान सभा में 296 सदस्य थे, जिनमें से 31 दलित थे. ये सभी प्रांतीय विधानमंडलों द्वारा चुने गए थे. अंबेडकर के गृह प्रदेश बॉम्बे प्रेसिडेन्सी ने उन्हें नहीं चुना था, वे चुनाव हार गए थे. इसके बावजूद, अंबेडकर ने हार नहीं मानी और उन्होंने कलकत्ता जाकर बंगाल विधान परिषद के सदस्यों का समर्थन हांसिल करने का प्रयास किया लेकिन दाल यहाँ भी नहीं गली. नतीजन, वे दिल्ली वापस लौट गए.

मंडल पहले से ही अंबेडकर की लेखनी, उनकी विद्वता और दलितों के लिए कार्यों को लेकर उनके प्रशंसक थे. जब उन्हें अंबेडकर की तत्कालीन स्थिति की भनक लगी तो उन्होंने तुरंत अंबेडकर को बंगाल के जैसोर-खुलना चुनाव क्षेत्र से चुनाव लड़ने के लिए आमंत्रित किया.

मंडल डॉ. अंबेडकर की उम्मीदवारी के प्रस्तावक बने, कांग्रेस एम.एल.सी. गयानाथ बिस्वास समर्थक और मुस्लिम लीग ने इस चुनाव में आंबेडकर को नैतिक समर्थन दिया. फिर चुनाव हुए, नतीजें आये और डॉ. अंबेडकर के संविधान सभा में जाने का रास्ता साफ हो गया.

लेकिन इस बीच कांग्रेस ने सियासी छलावा करते हुए जिन जिलों से अंबेडकर संविधान सभा के लिए चुने गए थे उन जिलों को पाकिस्तान को दे दिया.

विभाजन की योजना के तहत इस बात पर सहमति बनी थी कि जिन इलाकों में हिंदुओं की आबादी 51 फ़ीसदी से अधिक है उसे भारत में रखा जाएगा और जहां मुस्लिम 51 फ़ीसदी से अधिक है उन्हें पाकिस्तान को दे दिया जाएगा. लेकिन कांग्रेस ने अपने घमंड को देश से ऊपर रखते हुए अंबेडकर ने जहाँ से चुनाव जीता था उन जिलों में 71% हिंदु आबादी होने के बावजूद पाकिस्तान को दे दिए. इतिहास में रूचि रखने वालों का मानना है कि “जवाहरलाल नेहरू ने अंबेडकर के पक्ष में वोट देने की सामूहिक सज़ा के तौर पर इन सभी चार ज़िलों को पाकिस्तान को दे दिया था.”

अब तकनीकी रूप से अंबेडकर पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्य बन गए और भारतीय संविधान सभा की उनकी सदस्यता रद्द कर दी गई. पाकिस्तान बनने के साथ ही बंगाल अब विभाजित हो गया था और संविधान सभा के लिए पश्चिम बंगाल में नए चुनाव किए जाने थे. जब यह स्पष्ट हो गया कि अंबेडकर अब संविधान सभा में नहीं रह सकते तब उन्होंने सार्वजनिक स्टैंड लिया कि वो संविधान को स्वीकार नहीं करेंगे और इसे राजनीतिक मुद्दा बनाएंगे. इसके बाद ही कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें जगह देने का फ़ैसला किया.

इस बीच बॉम्बे के क़ानून विशेषज्ञ एम.आर.जयकर ने संविधान सभा से इस्तीफ़ा दे दिया था जिनकी जगह को जी.वी.मावलंकर ने भरा.

कांग्रेस का इरादा था कि मावलंकर को संविधान सभा का अध्यक्ष तब बनाया जाएगा जब 15 अगस्त 1947 से यह भारत के केंद्रीय विधायिका के तौर पर काम करने लगेगा. लेकिन फिर कांग्रेस पार्टी ने फ़ैसला किया कि जयकर की खाली जगह अंबेडकर भरेंगे.

बहरहाल, हमें यह मानना होगा कि यदि जोगेंद्रनाथ मंडल ने अंबेडकर का हाथ ना थामा होता तो भारत की और भारत के संविधान की तस्वीर कुछ यूँ ना होती जैसी आज है.

भारत विभाजन और जोगेंद्रनाथ मंडल



तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं की रीति-नीतियों और मंडल मुस्लिम लीग के साथ से भारत में ‘दलित-मुस्लिम’ राजनीति का एक नया प्रयोग शुरू हुआ. जिन्ना इस नए सिरे की राजनीति के मायने समझ रहे थे तभी उन्होंने इसको और अच्छी तरह से भुनाना शुरू कर दिया. इस वजह से राजनीतिक समीकरण भी तेजी से बदलने लगे.

नतीजा यह हुआ कि मंडल और उनके अनुयायियों ने कांग्रेस पार्टी की तुलना में जिन्ना की मुस्लिम लीग को अधिक धर्मनिरपेक्ष समझना शुरू कर दिया.

मंडल को एक भ्रम हो गया कि “कांग्रेस पार्टी शासित भारत की तुलना में जिन्ना के धर्मनिरपेक्ष पाकिस्तान में अनुसूचित जाति की स्थिति बेहतर होगी.”

वे अब खुलकर ‘पाकिस्तान मूवमेंट’ के समर्थन में आ गए और शेष दलितों को भी इस मूवमेंट के साथ जोड़ने में जुट गए.

चूँकि मुस्लिम लीग का मकसद भारत को हो सके उतना बाँटकर कर पाकिस्तान के नक़्शे को बड़ा करना था इसलिए उन्होंने मंडल को प्रत्येक मौक़ों पर पार्टी का खास साबित किया. लीग के नेता यह बखूबी जानते थे कि केवल मुसलमानों की राजनीति से पाकिस्तान का नक्शा बड़ा नहीं होगा इसके लिए जरूरी है कि दलितों को भी साथ रखा जाए.

कल तक जिस पाकिस्तान का वजूद मुसलमानों में तलाशा जा रहा था अब उस तलाश का केंद्र दलित-मुसलमान हो चला था.

लेकिन मुस्लिम लीग और जोगेंद्र नाथ मंडल की ‘दलितों और मुसलमानो का पाकिस्तान’ वाली सोच से अंबेडकर गहरा विरोध रखते थे. अंबेडकर भारत विभाजन के विरोध में थे. वे दलितों के लिए भारत को ही उपयुक्त मानते थे और उनका कहना था कि “यदि भारत का बँटवारा मज़हबी आधार पर हो रहा है तो जरूरी है कि कोई भी मुसलमान भारत में ना रहे और पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं को भी भारत आ जाना चाहिए, वर्ना समस्याएं बनी रहेंगी.”

आगे चलकर अंबेडकर ने मंडल से किनारा कर लिया.
जोगेंद्र नाथ मंडल ने मुस्लिम लीग की तरफ से भारत विभाजन के वक्त एक अहम किरदार निभाया था. बंगाल के कुछ इलाके जहाँ हिन्दू (जिसमें दलित भी शामिल हैं) और मुसलमानों की आबादी समान थी वहां पाकिस्तान या हिंदुस्तान में शामिल होने हेतु चुनाव करवाए गए.

इन इलाकों को पाकिस्तान में शामिल करने हेतु जरूरी था कि सारे मुसलमान और हिंदुओं में से पिछड़ी जातियां पाकिस्तान के पक्ष में वोट करें! जिन्ना ने इसकी कमान जोगेंद्र नाथ मंडल को सौंपी.

“पाकिस्तान में दलितों के हितों का सबसे अधिक ध्यान रखा जाएगा” इस तरह के मंडल के बयानों ने पिछड़ी जातियों के वोटों को पाकिस्तान के पक्ष में कर लिया और इस तरह जोगेंद्र नाथ मंडल की सहायता से जिन्ना ने भारत के बड़े हिस्से को पाकिस्तान के नक्क्षे में समाहित कर लिया.

जिन्ना का पाकिस्तान बनाम मंडल का पाकिस्तान



पाकिस्तान के नक़्शे को बड़ा करने के लिए मुस्लिम लीग ने जिस तरह मंडल का इस्तेमाल किया वह पुरानी बॉलीवुड फ़िल्मो की उन कहानियों जैसा ही था ‘जब एक विलन किसी बच्चे को किडनैप करने के लिए टॉफी या चॉकलेट की लालच देकर अपने पास बुलाता है और फिर अपना असली रंग दिखाना शुरू करता है.’

बँटवारे के बाद मंडल एक बड़ी दलित आबादी लेकर पाकिस्तान चले गए. जिन्ना ने भी उनके कर्ज को उतारते हुए उन्हें पाकिस्तान के पहले कानून और श्रम मंत्री का पद दे दिया. उन्हें लगने लगा होगा कि “अब पाकिस्तान ने विस्थापित हुए दलितों के लिए अच्छे दिन आ गए.” लेकिन हुआ कुछ उल्टा.

मंडल के कहने पर भले ही दलितों के एक तबके ने अपने आप को हिंदुओं से अलग बता कर पाकिस्तान चले जाना सही समझा लेकिन कट्टरपंथी मुसलमानों के लिए अगड़ी जाति के हिंदुओं और दलितों में कोई फर्क न था


जिन्ना और मुस्लिम लीग की ‘मुसलमानों के पाकिस्तान’ से शुरू हुई यात्रा ने ‘मुसलमानों और दलितों के पाकिस्तान’ पर अपना मोड़ बदला और बाद में ‘मुसलमानों का ही पाकिस्तान’ पर विराम लिया.



पाकिस्तान में धीरे-धीरे दलित हिंदुओं पर अत्याचार होने शुरू हो गए और मंडल की अहमियत भी ख़त्म कर दी गई. दलितों की निर्ममतापूर्वक हत्याएँ, जबरन धर्म-परिवर्तन, संपत्ति पर जबरन कब्ज़ा और दलित बहन-बेटियों की आबरू लूटना, यह सब पाकिस्तान में रोज की और ‘आम बात’ हो चुकी थी.

इस पर मंडल ने मोहम्मद अली जिन्ना और अन्य नेताओं से कई बार बात भी की लेकिन नेताओं की चुप्पी ने उनको को और अधिक परेशान किया.

बँटवारे के बाद पाकिस्तान में बचे ज्यादातर दलित या तो मार दिए गए या फिर मजबूरी में उन्होंने इस्लाम अपना लिया. इस दौरान दलित अपने ही नेता और देश के कानून मंत्री के सामने मदद के लिए चीखते-चिल्लाते रहे, लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी.

पाकिस्तानी सरकार ने दलित हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों की सुध तक लेना जरूरी नहीं समझा.

मंडल यह सब देखकर ‘दलित-मुस्लिम राजनीतिक एकता’ के असफल प्रयोग के लिए खुद को कसूरवार समझे लगे और अपने आप को गहरे संताप व गुमनामी के आलम में झोंक दिया.

मडंल का इस्तीफा और एक हिंदू शरणार्थी के तौर पर भारत वापसी



दलितों की अधमरी स्थिति को देखते हुए मंडल ने पाकिस्तान सरकार को कई खत लिखें लेकिन सरकार ने उनकी एक न सुनी. और तो और एक हिन्दू होने के कारण उनकी देश-भक्ति पर भी सवाल उठाये जाने लगे.

स्थितियों को भांपते हुए, 8 अक्टूबर 1950 की रोज जोगेंद्र नाथ मंडल पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के मंत्री-मंडल से त्याग पत्र देकर भारत आ गये.

वे गए थे लाखों अनुयायियों को लेकर लेकिन आये तो अकेले शरणार्थी बनकर. वे दलित वहीं रह गए हैं जो मंडल के कहने पर अपना देश छोड़ कर चले गए थे. ‘दलित-मुस्लिम एकता’ की कीमत आज तक वह आबादी चुका रही है. वे रोज बेइज्जत हो रहे हैं, धर्म बदल रहे हैं, अपमान के घूंट पी रहे हैं, मैला उठा रहे हैं, भेदभाव का शिकार हो रहे हैं, मानो हर दिन मर-मर के जी रहे हैं.

खैर, मंडल के त्यागपत्र के शब्द कुछ इस तरह थे:



“बंगाल में मुस्लिम और दलितों की एक जैसी हालात थी. दोनों ही पिछड़े, मछुआरे, अशिक्षित थे. मुझे आश्वस्त किया गया था कि लीग के साथ मेरे सहयोग से ऐसे कदम उठाये जायेंगे जिससे बंगाल की बड़ी आबादी का भला होगा. हम मिलकर ऐसी आधारशिला रखेंगे जिससे सांप्रदायिक शांति और सौहादर्य बढ़ेगा. इन्हीं कारणों से मैंने मुस्लिम लीग का साथ दिया.

1946 में पाकिस्तान के निर्माण के लिये मुस्लिम लीग ने ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ मनाया. जिसके बाद बंगाल में भीषण दंगे हुए. कलकत्ता के नोआखली नरसंहार में पिछड़ी जाति समेत कई हिंदुओं की हत्याएँ हुई, सैकड़ों ने इस्लाम कबूल लिया. हिंदू महिलाओं का बलात्कार, अपहरण किया गया. इसके बाद मैंने दंगा प्रभावित इलाकों का दौरा किया. मैंने हिंदुओं के भयानक दुःख देखें जिनसे अभिभूत हूँ लेकिन फिर भी मैंने मुस्लिम लीग के साथ सहयोग की नीति को जारी रखा.

14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान बनने के बाद मुझे मंत्रिमंडल में शामिल किया गया. मैंने ख्वाजा नजीममुद्दीन से बात कर ईस्ट बंगाल की कैबिनेट में दो पिछड़ी जाति के लोगों को शामिल करने का अनुरोध किया. उन्होंने मुझसे ऐसा करने का वादा किया. लेकिन इसे टाल दिया गया जिससे मैं बहुत हताश हुआ.

गोपालगंज के पास दीघरकुल में एक मुस्लिम की झूठी शिकायत पर स्थानीय नमोशूद्राय लोगों के साथ क्रूर अत्याचार किया गया. पुलिस के साथ मिलकर मुसलमानों ने नमोशूद्राय समाज के लोगो को पीटा, घरों में छापे मारे. एक गर्भवती महिला की इतनी बेरहमी से पिटाई की गयी कि उसका मौके पर ही गर्भपात हो गया. निर्दोष हिंदुओं विशेष रूप से पिछड़े समुदाय के लोगों पर सेना और पुलिस ने भी हिंसा को बढ़ावा दिया. सयलहेट जिले के हबीबगढ़ में निर्दोष पुरुषों और महिलाओं को पीटा गया.

सेना ने न केवल लोगों को पीटा बल्कि हिंदू पुरुषों को उनकी महिलाओं को सैन्य शिविरों में भेजने के लिए मजबूर किया ताकि वो सेना की कामुक इच्छाओं को पूरा कर सकें. मैं इस मामले को आपके संज्ञान में लाया था, मुझे इस मामले में रिपोर्ट के लिये आश्वस्त किया गया लेकिन रिपोर्ट नहीं आई.

खुलना जिले कलशैरा में सशस्त्र पुलिस, सेना और स्थानीय लोगो ने निर्दयता से पुरे गाँव पर हमला किया. कई महिलाओं का पुलिस, सेना और स्थानीय लोगो द्वारा बलात्कार किया गया. मैंने 28 फरवरी 1950 को कलशैरा और आसपास के गांवों का दौरा किया. जब मैं कलशैरा में आया तो देखा यह जगह उजाड़ और खंडहर में बदल गयी है. यहाँ करीबन 350 घरों को ध्वस्त कर दिया गया. मैंने तथ्यों के साथ आपको सूचना दी.

ढाका में नौ दिनों के प्रवास के दौरान मैंने दंगा प्रभावित इलाकों का दौरा किया. ढाका-नारायणगंज और ढाका-चंटगाँव के बीच ट्रेनों और पटरियों पर निर्दोष हिंदुओं की हत्याओं ने मुझे गहरा झटका दिया.

मैंने ईस्ट बंगाल के मुख्यमंत्री से मिलकर कर दंगों को रोकने के लिये जरूरी कदम उठाने का आग्रह किया.

20 फरवरी 1950 को मैं बरिसाल पहुंचा. यहाँ की घटनाओं के बारे में जानकर में चकित था. यहाँ बड़ी संख्या में हिंदुओं को जला दिया गया. उनकी बड़ी संख्या को खत्म कर दिया गया. मैंने जिले में लगभग सभी दंगा प्रभावित इलाकों का दौरा किया. मधापाशा में जमींदार के घर में 200 लोगो की मौत हुई और 40 घायल थे. एक जगह है मुलादी प्रत्यक्षदर्शी ने यहाँ भयानक नरक देखा. यहाँ 300 लोगो का कत्लेआम हुआ. वहां गाँव में शवों के कंकाल भी देखे. नदी किनारे गिद्द और कुत्ते लाशों को खा रहे थे. यहाँ सभी पुरुषों की हत्याओं के बाद लड़कियों को आपस में बाँट लिया गया.

राजापुर में 60 लोग मारे गये. बाबूगंज में हिंदुओं की सभी दुकानों को लूट आग लगा दी गयी. ईस्ट बंगाल के दंगे में अनुमान के मुताबिक 10000 लोगो की हत्याएँ हुई. अपने आसपास महिलाओं और बच्चों को विलाप करते हुए मेरा दिल पिघल गया.

मैंने अपने आप से पूछा, क्या मैं इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान आया था!

मंडल ने अपने खत में आगे लिखा, ‘ईस्ट बंगाल में आज क्या हालात हैं? विभाजन के बाद 5 लाख हिंदुओं ने देश छोड़ दिया है. मुसलमानों द्वारा हिंदू वकीलों, हिंदू डॉक्टरों, हिंदू व्यापारियों, हिंदू दुकानदारों के बहिष्कार के बाद उन्हें आजीविका के लिये पलायन करने के लिये मजबूर होना पड़ा.

मुझे मुसलमानों द्वारा पिछड़ी जाति की लड़कियों के साथ बलात्कार की जानकारी मिली है. हिंदुओं द्वारा बेचे गये सामान की मुसलमान ख़रीददार पूरी कीमत नहीं दे रहे हैं. तथ्य की बात यह है पाकिस्तान में न कोई न्याय है, न कानून का राज इसीलिए हिंदू चिंतित हैं.

पूर्वी पाकिस्तान के अलावा पश्चिमी पाकिस्तान में भी ऐसे ही हालात हैं. विभाजन के बाद पश्चिमी पंजाब में 1 लाख पिछड़ी जाति के लोग थे उनमें से बड़ी संख्या को बल-पूर्वक इस्लाम में परिवर्तित किया गया है. मुझे एक लिस्ट मिली है जिसमे 363 मंदिरों और गुरुद्वारे मुस्लिमों के कब्ज़े में हैं.

इनमे से कुछ को मोची की दुकान, कसाईखाना और होटलों में तब्दील कर दिया है. मुझे जानकारी मिली है कि सिंध में रहने वाली पिछड़ी जाति की बड़ी संख्या को जबरन मुसलमान बनाया गया है. इन सबका कारण एक है. हिंदू धर्म को मानने के अलावा इनकी कोई गलती नहीं है.

पाकिस्तान की पूर्ण तस्वीर तथा उस निर्दयी एवं कठोर अन्याय को एक तरफ रखते हुए, मेरा अपना तजुर्बा भी कुछ कम दुखदायी, पीड़ादायक नहीं है. आपने अपने प्रधानमंत्री और संसदीय पार्टी के पद का उपयोग करते हुए मुझसे एक वक्तव्य जारी करवाया था, जो मैंने 8 सितम्बर को दिया था.

आप जानतें हैं मेरी ऐसी मंशा नहीं थी कि मैं ऐसे असत्य और असत्य से भी बुरे अर्धसत्य भरा वक्तव्य जारी करूँ. जब तक मैं मंत्री के रूप में आपके साथ और आपके नेतृत्व में काम कर रहा था मेरे लिये आपके आग्रह को ठुकरा देना मुमकिन नहीं था पर अब मैं इससे ज्यादा झूठे दिखावे तथा असत्य के बोझ को अपनी अंतरात्मा पर नहीं लाद सकता. मैंने यह निश्चय किया है कि मैं आपके मंत्री के तौर पर अपना इस्तीफ़े का प्रस्ताव आपको दूँ, जो कि मैं आपके हाथों में थमा रहा हूँ. मुझे उम्मीद है आप बिना किसी देरी के इसे स्वीकार करेंगे. आप बेशक इस्लामिक स्टेट के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए इस पद को किसी को देने के लिये स्वतंत्र हैं”

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