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4 लाख कश्मीरी पंडितों की वो कहानी जिसे सुनाने वाले का मुंह सिल जाता है


धोखे का दिन है 19 जनवरी. उन तमाम मजबूरियों और दर्द का दिन, जब आपके अपने लोग आपको अपने घरों से भाग जाने को मजबूर करते हैं.

सरकार आपका साथ नहीं देती. फिर आपके दर्द को भुला भी दिया जाता है. ये सब हमारे देश में ही हुआ है.

हमारे भारत में कई जगहों पर अत्याचार हुए हैं लोगों पर. उन पर बात भी होती है.

लेकिन कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार को सेक्युलर रहने और देश में समरसता लाने के नाम पर बहा दिया गया है.

ये सच है कि माइनॉरिटीज़ के साथ बहुत बार, बहुत खराब व्यवहार हुआ है, पर ये भी सच है कि कश्मीरी पंडितों के साथ भी उतना ही खराब व्यवहार हुआ है.

ऐसा लगता है कि हमारा सिस्टम खुद से ही डरता है. हमें यकीन है कि हम लोग अपने लोगों को बचा नहीं पाएंगे.

इसलिए हम ये मानने से भी डरते हैं कि कश्मीरी पंडितों के साथ बुरा हुआ है.
क्योंकि मन में डर होता है कि फिर बाकी जगहों पर लोग मुसलमानों को तंग करने लगेंगे. पर क्या ये तरीका सही है?

क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम सबको न्याय दिला पाएं? न्याय के क्रम में ये कहां से आ जाएगा कि जो ‘बहुसंख्यक’ है वो पीड़ित नहीं हो सकता और ‘अल्पसंख्यक’ गलत नहीं हो सकता? फिर ऐसा तो नहीं है कि इन दोनों वर्गों के लोग आपस में एक-दूसरे से बहुत जुड़े हुए हैं.

अगर ऐसा होता तो ये अपना दुख आपस में बांट ही लेते. बात ही खत्म हो जाती. क्या हम ऐसा नहीं कर सकते कि लोगों को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के चश्मे से देखना छोड़कर उनके लोकल व अपने मुद्दों को देखना शुरू करें?

ताज्जुब की बात ये है कि आग अमेरिका और रूस के झगड़े से फैली





19 जनवरी 1990 को वो दिन माना जाता है जब कश्मीर के पंडितों को अपना घर छोड़ने का फरमान जारी हुआ था. कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच तो जंग 1947 से ही जारी है.

पर कश्मीर में लोकल स्थिति इतनी खराब नहीं थी. तमाम कहानियां हैं कश्मीरी मुसलमानों और कश्मीरी पंडितों के प्यार की.
पर 1980 के बाद माहौल बदलने लगा था. रूस अफगानिस्तान पर चढ़ाई कर चुका था. अमेरिका उसे वहां से निकालने की फिराक में था.

लिहाजा अफगानिस्तान के लोगों को मुजाहिदीन बनाया जाने लगा.
ये लोग बगैर जान की परवाह किये रूस के सैनिकों को मारना चाहते थे. इसमें सबसे पहले वो लोग शामिल हुए जो अफगानिस्तान की जनता के लिए पहले से ही समस्या थे. क्रूर, वहशी लोग. उठाईगीर और अपराधी. इन सबकी ट्रेनिंग पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में होने लगी.

तो आस-पास के लोगों से इनका कॉन्टैक्ट होना शुरू हुआ.

इनसे जुड़े वो लोग जो पहले से ही कश्मीर के लिए समस्या बने हुए थे. क्रूर, वहशी लोग.
उठाईगीर और अपराधी. इन सबको प्रेरणा मिली पाकिस्तान के शासक जनरल ज़िया से.
इतने ऊंचे पद पर रहकर वो यही काम कर रहे थे. क्रूरता उनका शासन था. वहशीपना न्याय. धर्म के उठाईगीर थे. अपराध जनता से कर रहे थे.

जब ऐसे लोगों पर पुलिस ने कार्रवाई की तो उसकी जद में बाकी मुसलमान भी आ गए. कई जगहों पर बेकसूर लोग भी फंस गये. अब धर्म के उठाईगीरों को मौका मिल गया. वो कहने लगे कि हम पहले से ही कहते न थे कि कश्मीरी काफिर हमारे दुश्मन हैं! इन्हें यहां रहने न दिया जाए.
कश्मीर में पंडित कभी भी 5% से ज्यादा नहीं थे. हालांकि कई जगहों पर क्लेम किया जाता है कि ये यहां पर 15-20% तक हुआ करते थे. पर ये जरूर था कि पुलिस और प्रशासन में कश्मीरी पंडित ठीक-ठाक संख्या में थे.

जज, डॉक्टर, प्रोफेसर, सिविल सर्वेंट ऐसे पद होते हैं जो आसानी से नजर में आ जाते हैं. तो धर्मांध लोगों को आसानी से टारगेट मिल गया.
उठाईगीर, चोर और अपराधी पहले से इन लोगों से लगे-बुझे थे. अब तो वजह मिल गई थी. सबको रेडिकलाइज किया जाने लगा.


जिस जगह में कश्मीरी पंडित सदियों से रह रहे थे, उनको घर छोड़ने के लिए कहा जाने लगा.
पहले तो आस-पास के लोगों ने सपोर्ट किया कि नहीं, आपको कहीं नहीं जाना है.
पर बाद में कुछ तो डर और कुछ अपनी यूनिटी की भावना से कहा जाने लगा कि बेहतर यही होगा कि आप लोग चले जाइए.

क्योंकि बसों में ब्लास्ट होने लगे. यूं ही गोलियां चलने लगीं. ऐसा नहीं था कि सिर्फ पंडित ही मरते थे. मुसलमान भी मरते थे.
पर धर्म की आग इतनी तेज थी कि उनके मरने की आवाज को आतंकवादियों ने दबा दिया. हर जगह यही धुन थी कि पंडितों को यहां से बाहर भेज देना है.

फिर सरकार के कामों ने कश्मीरियत से पंडितों को एकदम बाहर कर




सरकार ने इस आग में एक बहुत बड़ा पलीता लगाया. 1986 में गुलाम मोहम्मद शाह ने अपने बहनोई फारुख अब्दुल्ला से सत्ता छीन ली और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बन गये.
खुद को सही ठहराने के लिए उन्होंने एक खतरनाक निर्णय लिया
. ऐलान हुआ कि जम्मू के न्यू सिविल सेक्रेटेरिएट एरिया में एक पुराने मंदिर को गिराकर भव्य शाह मस्जिद बनवाई जाएगी.

तो लोगों ने प्रदर्शन किया. कि ये नहीं होगा. जवाब में कट्टरपंथियों ने नारा दे दिया कि इस्लाम खतरे में है.

इसके बाद कश्मीरी पंडितों पर धावा बोल दिया गया.
साउथ कश्मीर और सोपोर में सबसे ज्यादा हमले हुए.

जोर इस बात पर रहता था कि प्रॉपर्टी लूट ली जाए. हत्यायें और रेप तो बाई-प्रोडक्ट के रूप में की जाती थीं.

नतीजन 12 मार्च 1986 को राज्यपाल जगमोहन ने शाह की सरकार को दंगे न रोक पाने की नाकामी के चलते बर्खास्त कर दिया.


1987 में चुनाव हुए. कट्टरपंथी हार गये. ये आखिरी मौका था, जब वहां के समाज को अच्छे से पढ़ा जा सकता था. वही मौका था,

जब बहुत कुछ ठीक किया जा सकता था. क्योंकि चुनाव में कट्टरपंथ का हारना इस बात का सबूत है कि जनता अभी भी शांति चाहती थी.

पर कट्टरपंथियों ने चुनाव में धांधली का आरोप लगाया. हर बात को इसी से जोड़ दिया कि इस्लाम खतरे में है. जुलाई 1988 में जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट बना. कश्मीर को भारत से अलग करने के लिए.

कश्मीरियत अब सिर्फ मुसलमानों की रह गई.
पंडितों की कश्मीरियत को भुला दिया गया. 14 सितंबर 1989 को भाजपा के नेता पंडित टीका लाल टपलू को कई लोगों के सामने मार दिया गया.

हत्यारे पकड़ में नहीं आए.
ये कश्मीरी पंडितों को वहां से भगाने को लेकर पहली हत्या थी. इसके डेढ़ महीने बाद रिटायर्ड जज नीलकंठ गंजू की हत्या की गई.

गंजू ने जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल भट्ट को मौत की सजा सुनाई थी.

गंजू की पत्नी को किडनैप कर लिया गया. वो कभी नहीं मिलीं.

वकील प्रेमनाथ भट को मार दिया गया. 13 फरवरी 1990 को श्रीनगर के टेलीविजन केंद्र के निदेशक लासा कौल की हत्या की गई.
ये तो बड़े लोग थे.

साधारण लोगों की हत्या की गिनती ही नहीं थी. इसी दौरान जुलाई से नवंबर 1989 के बीच 70 अपराधी जेल से रिहा किये गये थे.

क्यों? इसका जवाब नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार ने कभी नहीं दिया.



नारे लगते थे-


जागो जागो, सुबह हुई, रूस ने बाजी हारी है, हिंद पर लर्जन तारे हैं, अब कश्मीर की बारी है.
हम क्या चाहते, आजादी.
आजादी का मतलब क्या, ला इलाहा इल्लाह.
अगर कश्मीर में रहना होगा, अल्लाहु अकबर कहना होगा.
ऐ जालिमों, ऐ काफिरों, कश्मीर हमारा है.
यहां क्या चलेगा? निजाम-ए-मुस्तफा.
रालिव, गालिव या चालिव. (हमारे साथ मिल जाओ, या मरो और भाग जाओ.)


लाखों लोगों के भागने की कहानियां बनीं, रुकने की भी बनीं, पर सच बहुत कड़वा था




4 जनवरी 1990 को उर्दू अखबार आफताब में हिज्बुल मुजाहिदीन ने छपवाया कि सारे पंडित कश्मीर की घाटी छोड़ दें.

अखबार अल-सफा ने इसी चीज को दोबारा छापा. चौराहों और मस्जिदों में लाउडस्पीकर लगाकर कहा जाने लगा कि पंडित यहां से चले जाएं, नहीं तो बुरा होगा.
इसके बाद लोग लगातार हत्यायें औऱ रेप करने लगे.

कहते कि पंडितो, यहां से भाग जाओ,
पर अपनी औरतों को यहीं छोड़ जाओ – असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान (हमें पाकिस्तान चाहिए. पंडितों के बगैर, पर उनकी औरतों के साथ.)
गिरजा टिक्कू का गैंगरेप हुआ.

फिर मार दिया गया. ऐसी ही अनेक घटनाएं हुईं. पर उनका रिकॉर्ड नहीं रहा. किस्सों में रह गईं. एक आतंकवादी बिट्टा कराटे ने अकेले 20 लोगों को मारा था.

इस बात को वो बड़े घमंड से सुनाया करता. जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट इन सारी घटनाओं में सबसे आगे था
.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 60 हजार परिवार कश्मीर छोड़कर भाग गये. उन्हें आस-पास के राज्यों में जगह मिली.

जान बचाने की. कहीं कोई इंतजाम नहीं था. 19 जनवरी 1990 को सबसे ज्यादा लोगों ने कश्मीर छोड़ा था. लगभग 4 लाख लोग विस्थापित हुए थे. हालांकि आंकड़ों के मुताबिक अभी लगभग 20 हजार पंडित कश्मीर में रहते हैं.




विस्थापित परिवारों के लिए तमाम राज्य सरकारें और केंद्र सरकार तरह-तरह के पैकेज निकालती रहती हैं.
कभी घर देने की बात करते हैं. कभी पैसा. पर इन 27 सालों में मात्र एक परिवार वापस लौटा है.

क्योंकि 1990 के बाद भी कुछ लोगों ने वहां रुकने का फैसला किया था. पर 1997, 1998 और 2003 में फिर नरसंहार हुए थे.

हालांकि कश्मीर के मुसलमानों और रुके हुए पंडितों के बीच प्यार की कई कहानियां सामने आती हैं. पर सच यही है कि जिस प्रॉपर्टी पर लोगों ने कब्जा कर लिया है, उसके प्यार को इस प्यार से बदला नहीं जा सकता. लौटने की कोई गुंजाइश नहीं है.

हालांकि नरेंद्र मोदी की सरकार ने 2015 में कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए 2 हजार करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की थी.

पर इतने लोगों का इससे क्या ही होगा. कितने फ्लैट मिलेंगे और कितनी नौकरियां बटेंगी.

सबसे बड़ी बात कि अपराधियों के बारे में कोई बात नहीं होती है. सब चैन की नींद काट रहे हैं. किसी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई.

ऐसे भागे थे घर से, जैसे भूकंप आ गया हो




घरों में सामान बिखरा पड़ा था. गैस स्टोव पर देग़चियां और रसोई में बर्तन इधर-उधर फेंके हुए थे. घरों के दरवाज़े खुले थे.

हर घर में ऐसा ही समां था. ऐसा लगता था कि भूकंप के कारण घर वाले अचानक अपने घरों से भाग खड़े हुए हों... हुआ भी ऐसा ही था.

फ़र्क़ केवल इतना था कि ये प्राकृतिक आपदा का नतीजा नहीं था.
श्रीनगर के रैनावाड़ी मोहल्ले में रहने वाले कश्मीरी पंडितों को रातों रात अपने घरों को छोड़कर भागना पड़ा था.

लेखक राहुल पंडिता उस समय 14 वर्ष के थे. बाहर माहौल ख़राब था. मस्जिदों से उनके ख़िलाफ़ नारे लग रहे थे. पड़ोसी कह रहे थे, 'आज़ादी की लड़ाई में शामिल हो या वादी छोड़कर भागो'.

आतंकी हमले और हत्याओं के माहौल में जी रहे थे. सुरक्षाकर्मी थे लेकिन इतने नहीं कि वो उनकी जान और सामान की सुरक्षा कर सकें.

राहुल पंडिता के परिवार ने तीन महीने इस उम्मीद में काटे कि शायद माहौल सुधर जाए.

लेकिन आख़िर उनके जाने की घड़ी आ गई. वो 3 अप्रैल 1990 का दिन था. "हमलों के डर से हमारे घर में लाइट बुझा दी गई थी."

राहुल आगे कहते हैं, "कुछ लड़के जिनके साथ हम क्रिकेट खेला करते थे हमारे घर के बाहर पंडितों के ख़ाली घरों को आपस में बांटने की बातें कर रहे थे."

उन्होंने बताया, "हमारी लड़कियों के बारे में बुरी बातें कह रहे थे. ये बातें मेरे ज़हन में अब भी ताज़ा हैं."

उसी शाम को राहुल के पिता ने फ़ैसला किया कि अब कश्मीर में रहना मुमकिन नहीं. अगले ही दिन एक टैक्सी करके वो जम्मू चले गए.

शुरू में उन्हें दर-दर की ठोकरें खानी पड़ीं. "जम्मू में पहले हम सस्ते होटल में रहे, छोटी-छोटी जगहों पर रहे.

बाद में एक धर्मशाला में रहे जहाँ मेरी माँ की तबीयत बहुत ख़राब हो गई. उस समय अपने भविष्य को लेकर हमें कुछ मालूम नहीं था"

उस साल ऑल इंडिया कश्मीरी समाज के अध्यक्ष विजय ऐमा का घर भी उजड़ गया था.
लेकिन ऐमा कहते हैं कि कश्मीरी पंडितों की त्रासदी किसी एक परिवार की नहीं बल्कि ये उनकी सामूहिक त्रासदी थी. ऐमा कहते हैं, "ये त्रासदी उन कश्मीरी पंडितों की कहानी है जो उस रात अपने घरों को छोड़ने पर मजबूर हुए."

कश्मीरी पंडितों के अनुसार उन्हें उनके घरों से नहीं बल्कि उनकी जड़ों से बेदख़ल किया गया.
विजय ऐमा कहते हैं, "विश्वास नहीं होता था कि जिस जगह हम सदियों से रहते आये हैं वहां ऐसा माहौल होगा.

मालूम नहीं था कि कैसे हम ज़िंदा बचेंगे, कैसे अपनी औरतों की आबरू बचा पाएंगे."

उनके अनुसार उस माहौल को "लफ़्ज़ों में बयान नहीं किया जा सकता."
अधिकतर कश्मीरी पंडितों ने जम्मू में शरण ली. वहां ख़ेमों का एक शहर सा बस गया.

राहुल पंडिता के अनुसार उस साल जून की गर्मी से ख़ेमों में कई लोगों का देहांत हो गया जिसके बारे में उन्होंने अपनी नई प्रकाशित किताब में भी ज़िक्र किया है.



जम्मू और दिल्ली में शरण लेने वाले कश्मीरी पंडितों को ये लगा कि इन जगहों पर उनके दर्द को लोग समझेंगे लेकिन उन्हें जल्द समझ में आ गया कि "उन्हें पूछने वाला कोई नहीं".

राहुल पंडिता कहते हैं, "हमें ये उम्मीद थी कि जब हम कश्मीर से पलायन करके जम्मू,

दिल्ली और लखनऊ आएंगे जहाँ बहुसंख्यक हिन्दू समाज है तो उन्हें एहसास होगा कि हम कश्मीर से भागकर आए हैं."

"लेकिन निर्वासन के तुरंत बाद समझ में आ गया कि जो मकान मालिक होता है वह न तो हिन्दू होता है और न मुसलमान. वो केवल मकान मालिक होता है और उसका मज़हब केवल पैसा होता है."

कश्मीरी पंडितों को आम तौर पर सभी से शिकायत है. विजय ऐमा कहते हैं कि देश की सिविल सोसाइटी ने, मीडिया ने, नेताओं ने और हुकूमतों ने... किसी ने उनका हाल नहीं पूछा.

एक अंदाज़े के मुताबिक़ पिछले 26 सालों में तीन लाख कश्मीरी पंडित घाटी को छोड़ कर चले गए जिनमें से अधिकतर 1990 में ही चले गए थे.
लेकिन कुछ परिवार ऐसे थे जो अपने घरों को छोड़कर नहीं गए.

अब वादी में ऐसे लोगों की संख्या 2700 से थोड़ा अधिक है. इनमें संजय टीकू भी एक हैं जो आज भी उसी घर में रह रहे हैं जहाँ 26 साल पहले रह रहे थे.

वो कहते हैं, "जब हम अपने रिश्तेदारों को ढूंढने जम्मू को निकले, जब हमने अपने रिश्तेदारों के हालात वहां ख़ेमों में देखे तो हम ने फ़ैसला किया कि बेहतर है हम कश्मीर में ही रहें. मौत लिखी है तो कश्मीर में होगी"

अब राज्य से बाहर कई कश्मीरी पंडित पहले से बेहतर हाल में हैं लेकिन वो अपने वतन को लौटना चाहते हैं. क्या ये संभव है?

राहुल पंडिता कहते हैं, "पिछले 26 सालों में किसी भी सरकार ने ऐसा माहौल तैयार नहीं किया है जिससे कश्मीर में उनकी वापसी हो सके".

जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फ़ारूक़ अब्दुल्लाह ने मंगलवार को एक समारोह में कहा कि कश्मीर लौटने की ज़िम्मेदारी ख़ुद कश्मीरी पंडितों की है.


इस बयान ने कश्मीरी पंडितों को काफ़ी मायूस किया. विजय ऐमा के अनुसार पहल कश्मीरी मुस्लिम समाज को करनी होगी.
कश्मीरी पंडित के बहुमत के विचार में अगर वो घर लौटे तो ख़ुद को सुरक्षित महसूस नहीं करेंगे. कुछ कहते हैं उन्होंने काफ़ी पहले बदहाली में अपने घर बेच दिए.

संजय टीकू कहते, "मैं कश्मीर में सर उठा कर जीता हूँ, सर झुका कर नहीं." कश्मीर के पैंथर्स पार्टी के अध्यक्ष भीम सिंह कहते हैं कि हालात पहले से काफ़ी बेहतर हैं. "मैं राजपूत हूँ, एक हिन्दू हूँ. मैं खुली गाड़ी में श्रीनगर जाता हूँ."

संजय टीकू के अनुसार कश्मीर में 186 अलग-अलग जगहों पर 2700 कश्मीरी पंडित रहते हैं. लेकिन कश्मीर से बाहर रहने वाले पंडितों के अनुसार ये अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडित वहां दबकर रहते हैं.

कश्मीरी पंडितों की घर वापसी पर एक सुझाव आया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्मार्ट सिटी बनाने की योजना रखते हैं.

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